• ज्ञान – इसका तात्पर्य ज्ञान, बुद्धि या आध्यात्मिक बुद्धि से है।
• कर्म – यह क्रिया या कर्मों को दर्शाता है, जो अक्सर किसी के कर्तव्यों और जिम्मेदारियों से जुड़ा होता है।
• संन्यास – इसका अर्थ त्याग या वैराग्य है, जो आमतौर पर तप के मार्ग या सांसारिक आसक्ति के त्याग से जुड़ा है।
• योग – इसका अर्थ है मार्ग या अनुशासन, जो प्रायः आध्यात्मिक अभ्यास या जीवन शैली को संदर्भित करता है।

ज्ञान कर्म संन्यास योग हिंदू धर्म में एक दार्शनिक अवधारणा का प्रतिनिधित्व करता है, विशेष रूप से भगवद गीता के संदर्भ में। यह आध्यात्मिक ज्ञान और आत्म-साक्षात्कार के मार्ग के रूप में ज्ञान, क्रिया और त्याग के विचारों को जोड़ता है। यह शब्द ज्ञान और क्रिया को एकीकृत करने की धारणा को समाहित करता है, जबकि परिणामों से अलगाव की भावना को बनाए रखता है, जिससे चेतना की उच्च अवस्था प्राप्त होती है।

ज्ञान का योग और कर्म का अनुशासन
चौथे अध्याय में श्रीकृष्ण अर्जुन को दिए जा रहे दिव्य ज्ञान के आदिकालीन उद्गम को प्रकट करते हुए उसमें उसके विश्वास को पुष्ट करते हैं। वे बताते हैं कि यह वही शाश्वत ज्ञान है जिसका उपदेश उन्होंने आरम्भ में सर्वप्रथम सूर्यदेव को दिया था और फिर परम्परागत पद्धति से यह ज्ञान निरन्तर राजर्षियों तक पहुँचा। अब वे अर्जुन, जो उनका प्रिय मित्र और परमभक्त है, के सम्मुख इस दिव्य ज्ञान को प्रकट कर रहे हैं। तब अर्जुन प्रश्न करता है कि वे श्रीकृष्ण जो वर्तमान में उसके सम्मुख खड़े हैं वे इस ज्ञान का उपदेश युगों पूर्व सूर्यदेव को कैसे दे सके? इसके प्रत्युत्तर में श्रीकृष्ण अपने अवतारों का रहस्य प्रकट करते हैं। वे बताते हैं कि भगवान अजन्मा और सनातन हैं फिर भी वे अपनी योगमाया शक्ति द्वारा धर्म की स्थापना के लिए पृथ्वी पर प्रकट होते हैं लेकिन उनके जन्म और कर्म दिव्य होते हैं और वे भौतिक विकारों से दूषित नहीं हो सकते। जो इस रहस्य को जानते हैं वे अगाध श्रद्धा के साथ उनकी भक्ति में तल्लीन रहते हैं और उन्हें प्राप्त कर फिर इस संसार में पुनः जन्म नहीं लेते।
इसके पश्चात इस अध्याय में कर्म की प्रकृति का व्याख्यान किया गया है और कर्म, अकर्मण्यता तथा वर्जित कर्म से संबंधित तीन सिद्धातों पर चर्चा की गयी है। इनसे विदित होता है कि कर्मयोगी अनेक प्रकार के सांसारिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए अकर्मा की अवस्था प्राप्त कर लेते हैं और इसलिए वे कार्मिक प्रतिक्रियाओं में नहीं फंसते ।
इसी ज्ञान के साथ प्राचीन काल में ऋषि मुनि सफलता और असफलता, सुख-दुख से प्रभावित हुए बिना केवल भगवान के सुख के लिए यज्ञ के रूप में कर्म करते थे। यज्ञ कई प्रकार के होते हैं और इनमें से कई यज्ञों का उल्लेख यहाँ किया गया है। जब यज्ञ पूर्ण समर्पण की भावना से सम्पन्न किए जाते हैं तब इनके अवशेष अमृत के समान बन जाते हैं। ऐसे अमृत का पान करने से साधक के भीतर की अशुद्धता समाप्त हो जाती है। इसलिए यज्ञों का अनुष्ठान पूर्ण निष्ठा और ज्ञान के साथ करना चाहिए। ज्ञान रूपी नौका की सहायता से महापापी भी संसार रूपी कष्टों के सागर को सरलता से पार कर लेता है। ऐसा दिव्य ज्ञान वास्तविक आध्यात्मिक गुरु से प्राप्त करना चाहिए जो परम सत्य को जान चुका हो। श्रीकृष्ण गुरु के रूप में अर्जुन से कहते हैं कि ज्ञान की खड्ग से अपने हृदय में उत्पन्न हुए सन्देहों को काट दो, उठो और युद्ध लड़ने के अपने कर्त्तव्य का पालन करो।

गीता सार: अध्याय 4
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को ज्ञान और कर्म का सही अर्थ समझाते हैं। वह बताते हैं कि किस प्रकार ज्ञान से कर्म का संन्यास किया जा सकता है, और क्यों ज्ञान से किया हुआ कर्म मनुष्य को मुक्ति प्रदान करता है।
1. ज्ञान की उत्पत्ति और गुरु-शिष्य परंपरा
भगवान श्रीकृष्ण बताते हैं कि इस ज्ञान का आरंभ उन्होंने स्वयं सूर्य को उपदेश देकर किया था। इसके बाद यह ज्ञान एक परंपरा के रूप में गुरु-शिष्य से होता हुआ आगे बढ़ता रहा है। यह बताता है कि सच्चे ज्ञान की प्राप्ति केवल सद्गुरु से ही हो सकती है।
2. अवतार का उद्देश्य
भगवान अर्जुन को बताते हैं कि जब भी धर्म की हानि होती है और अधर्म का बोलबाला बढ़ता है, तब-तब वह धरती पर अवतार लेते हैं। उनका उद्देश्य धर्म की रक्षा और सज्जनों का उद्धार करना तथा पापियों का विनाश करना है।
3. ज्ञान से कर्म का शुद्धिकरण
श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि ज्ञान से किए गए कर्म शुद्ध होते हैं। जब मनुष्य कर्म को सही ज्ञान के साथ करता है, तो वह कर्म बंधन से मुक्त हो जाता है। ऐसे कर्मों से कोई पाप नहीं लगता है, और यह मुक्ति की ओर ले जाते हैं।
4. कर्म में संन्यास और समर्पण
भगवान कहते हैं कि कर्म को त्यागने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उसे ज्ञानपूर्वक और भगवान को समर्पित करके करना चाहिए। जब व्यक्ति अपने सभी कार्यों को ईश्वर के प्रति समर्पित करता है, तो वह कर्म बंधन से मुक्त हो जाता है।
5. सच्चे ज्ञान की महिमा
श्रीकृष्ण बताते हैं कि सच्चा ज्ञान सभी पापों और भ्रम को नष्ट कर देता है। जैसे अग्नि लकड़ी को जलाकर राख कर देती है, वैसे ही ज्ञान मनुष्य के सभी अज्ञान और दोषों को समाप्त कर देता है। सच्चे ज्ञान से व्यक्ति को अपने आत्मा का साक्षात्कार होता है।
6. विश्वास और श्रद्धा का महत्व
भगवान कहते हैं कि श्रद्धा और विश्वास के बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती। जो व्यक्ति श्रद्धा और समर्पण के साथ ज्ञान प्राप्त करता है, वही जीवन में सफल होता है और उसे शांति और मुक्ति मिलती है।
निष्कर्ष:
ज्ञान कर्म संन्यास योग का सार यह है कि सच्चे ज्ञान से किए गए कर्म ही मनुष्य को मुक्त करते हैं। जब हम अपने कर्मों को ईश्वर के प्रति समर्पित करते हैं और सच्चे ज्ञान के साथ कर्म करते हैं, तो हमें जीवन में शांति, संतोष और मोक्ष की प्राप्ति होती है।